विंशकुटा इमे नित्यं ध्येयाः सम्मेदभूभृतः ।
स्वस्वस्वामिसमायुक्ता
ध्यानात्सर्वार्थसिद्धिदाः ।।
अर्थ-
बीसों ही तीर्थंकरों के अपने-अपने नाम से समलङ्कृत और ध्यान करने पर सर्वार्थों अर्थात् सभी प्रयोजनभूत पदार्थों की सिद्धि करने वाले ये बीसों ही कूट निरंतर, हमेशा ध्यान करने योग्य हैं ।।
इस सिद्धक्षेत्र की यात्रा प्राचीनकाल से लोग बड़ी धूमधाम से करते आये हैं । द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ इस सम्मेदशिखर पर्वत से वर्तमान हुंडावसर्पिणी के प्रथम मोक्षमागी हुए हैं। उनके काल में उत्पन्न हुए सम्राट् सगर चक्रवर्ती ने प्रथम बार यात्रा संघ ले जाकर इस सिद्धक्षेत्र की वंदना की थी पुनः अन्य और महापुरुषों की यात्रा का वर्णन भी आता है-
प्रथमः सगरः प्रोक्तो मघवांश्च ततः परम् ।
सनत्कुमार आनंदः प्रभाश्रेणिक ईरितः ।।
अर्थ’-
सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर यात्रा संघ लाने वाले प्रथम संघपति सगर चक्रवर्ती थे। उनके बाद क्रमशः मघवान्, सनतकुमार चक्रवर्ती, आनंद, प्रभाश्रेणिक आदि बताये गये हैं ।।
संघपति प्रभाश्रेणिक के बाद क्रमशः ललितद्योतक, दत्तश्रेष्ठी, कुन्दप्रभ, दत्तशुभ (चरश्रेणिक), दत्तश्रेणिक, सोमप्रभ, सुप्रभ, चारूश्रेणिक, भावदत्तक या भवदत्त, अविचल, आनंदश्रेणिक, सुंदर, रामचंद्र, अमर श्रेणिक आदि सुवरान्त अर्थात् जिनका अंतिम समय सुंदर व श्रेष्ठ है, ऐसे ये भव्य जीव तीर्थयात्रा संघों के संघपति हुए । सम्मेदशिखर पर्वत जो सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है, उसका विस्तार बारह योजन है । इस पर्वत की प्रत्येक टोंक पर अनंत मुनिराज मुक्त हुए हैं और इसी पर्वतराज से सिद्धत्व को प्राप्त होकर सिद्ध हुए हैं। आगे और भी कहा है-
भव्या हि तत्र यात्रा अभव्या नैव संस्मृताः ।
भव्या भाविशिवाः प्रोक्ताः क्वचिन्मुक्तान तत्पराः ।।
अर्थ-
जो भविष्य में मुक्त होंगे, वे भव्य जीव तथा जो कभी भी मुक्त नहीं होंगे वे अभव्य जीव कहे गये हैं। सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर यात्रा करने की पात्रता भव्य जीवों की ही मानी गई है, अभव्य जीवों की नहीं ।।
केवलज्ञानी स्नातक मुनिराज ऐसा कहते हैं- “ भव्यराशि का कोई भी, कैसा की विभिन्नता से अनेकानेक आकृति वाले हैं, वे भव्यराशि के भाग से वहाँ अर्थात् सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर उत्पन्न होते हैं वे निश्चय ही उनचास भवों के भीतर मोक्ष जाने योग्य भव्यजीव हैं । भव्य राशि से अतिरिक्त जीवों का वहाँ जन्म ही नहीं होता है। इसी प्रकरण में नरकायु के बंधक राजा श्रेणिक के द्वारा सम्मेदशिखर यात्रा का उपक्रम करने के पश्चात् भी उनकी यात्रा न हो पाने का विषय भी पठनीय है, उसे पढ़कर भव्य जीवो को नरकायु - तिर्यंचाय के बंध के कारणों से सदैव बचने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।